भारत में बौद्ध धर्म क्यों नहीं जमा सका अपनी जड़ें? ,
छठी शताब्दी ईसा पूर्व के लगभग महात्मा बुद्ध का प्रदार्पण हुआ। एक गणराज्य के राजा के पुत्र होने के बावज़ूद उनमें वैराग्य के प्रति रुझान उत्पन्न हुआ। आखिरकार उन्होंने इस सांसारिकता से विदा लेते हुए समाधि ग्रहण की और बुद्धत्व को प्राप्त हुए।
ऐतिहासिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो स्वयं महात्मा बुद्ध ने किसी भी धार्मिक प्रचार-प्रसार में कोई रुचि नहीं ली थी। किंतु उनकी उदारता तथा वणिक वर्ग के खासे रुझान के कारण उन्हें न केवल समकालीन सम्राटों का ही समर्थन प्राप्त हुआ वरन् उनको समाज की मुख्य धारा से बाहर हुए लोगों का भी पूरा सहयोग मिला।
बुद्ध की मृत्यु, जिसे बौद्ध धर्म में महापरिनिर्वाण कहा जाता है, के समय बौद्ध मत काफी हद तक हिंदुस्तान के हर भाग में फैलने लगा था। किंतु उनकी मृत्यु के लगभग 200 वर्षों बाद जब सम्राट अशोक का राज्यकाल आया तो बौद्ध धर्म की महत्ता काफी बढ़ गई थी।
कहा तो यह भी जाता है कि स्वयं सम्राट अशोक भी बौद्ध धर्म में दीक्षित हुए थे। हालांकि तमाम इतिहासकार इस मत का खंडन करते नज़र आते हैं।
वस्तुतः कनिष्क के समय बौद्ध धर्म का एक अलग धर्म में हिंदुस्तान के बाहर प्रसार आरंभ हो चुका था, जबकि सम्राट अशोक के समय बौद्ध मत एक अलग धर्म की बजाय केवल हिंदू यानि सनातन धर्म की एक शाखा के रूप में ही मौजूद रहा था।
अशोक ने बौद्ध सम्प्रदाय को सनातन धर्म से अलग देखने की बजाय उसे केवल नीति-नियमों के रूप में ही स्वीकार किया था।
जावा-सुमात्रा-बाली सहित कोरियायी प्रायद्वीप एवं चीन व जापान तक इसका प्रसार कनिष्क के काल तक ही हो चुका था। बाद के सम्राटों के काल में तो इसने केवल विदेशों में अपनी साख मजबूती से स्थापित की।
तब ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर भारत यानि अपनी जन्मभूमि में ही इसके पांव क्यों और कैसे उखड़ गए, ?
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